Dr Kumar Malhotra Panipati
Saturday, February 2, 2019
अटा अटा सा
एक एक लम्हा हिया जिंदगी का गुबार-ए-ग़म से अटा अटा सा
बशर-बशर अपने आपसे भी है आजकल कुछ कटा कटा सा
निगल चुकी है हदूद-ए-अर्ज़-ओ-समा को नजरें बशर की फिर भी
अजीब सी कुछ रवायतों में है ज़हन-ए-इन्साँ बटा बटा सा
मिरे मुकद्दर का फैसला कल इस तरह से वो सुना रहे थे
कि जैसा तोता जवाब फैंके किसी की जानिब रटा रटा सा
कदम कदम पर नए इरादे नई कमीन्सें सिला रहे हैं
वतन में फिर भी हर इक बशर का लिबास क्यों है फटा फटा सा
मुसाफ़िरो अब निकल के भागो कि मंजिले फिर बुला रही है
हैं बदलियाँ कुछ फटी फटी सी है असमान भी छटा छटा सा
डाक्टर कुमार मल्होत्रा पानीपती
एक एक लम्हा हिया जिंदगी का गुबार-ए-ग़म से अटा अटा सा
बशर-बशर अपने आपसे भी है आजकल कुछ कटा कटा सा
निगल चुकी है हदूद-ए-अर्ज़-ओ-समा को नजरें बशर की फिर भी
अजीब सी कुछ रवायतों में है ज़हन-ए-इन्साँ बटा बटा सा
मिरे मुकद्दर का फैसला कल इस तरह से वो सुना रहे थे
कि जैसा तोता जवाब फैंके किसी की जानिब रटा रटा सा
कदम कदम पर नए इरादे नई कमीन्सें सिला रहे हैं
वतन में फिर भी हर इक बशर का लिबास क्यों है फटा फटा सा
मुसाफ़िरो अब निकल के भागो कि मंजिले फिर बुला रही है
हैं बदलियाँ कुछ फटी फटी सी है असमान भी छटा छटा सा
डाक्टर कुमार मल्होत्रा पानीपती
Thursday, January 31, 2019
ख़िताब
यह माना हर कोई तुमको
नज़रं-अदाज़ करता है
तुम्हे जाहिल समझता है
तुम्हारा सर कुचलता है
तुम्हारी कोशिशें अक्सर
यूँही बेकार जाती हैं
तुम्हे अपनी मुशक्कत का
सिला हरगिज़ नही मिलता
तुम्हें एहल-ए-सियासत ने
हजारों साल बहकाया
हक़ीक़त से परे रखा
खिलौने दे बहलाया
यह माना तुम परेशां हो
बहुत नाचार-ओ-बेबस हो
तुम्हारा हर गिला जायज़
शिकायत भी बजा लेकिन
वो जिनको तुम जलाते हो
वो आखिर किस की फ़स्लें हैं
वो जिनको तुम मिटाते हो
वो आखिर किस की फ़स्लें हैं
वो कालेज किस के कालिज हैं
वो सड़कें किस की सड़कें हैं
वो रेलें किस की दौलत हैं
वो आखिर किस की मेहनत हैं
जलाना ग़र जरूरी है
जलाओ बुग्ज़-ओ-नफरत को
मिटाना ग़र जरूरी है
मिटाओ बरबरीयत को
जलाओ तुम हक़ारत को
मिटाओ हर शरारत को
मलामत को अज़ीयत को
और उस गन्दी सियासत को
जो ज़हनों में बढ़ाती है
कदूरत को अदावत को
दबाती है सदाक़त को
हवा देती है वहशत को
छुपाती है हकीक़त को
ह्माक़त के ख़िलाफ़ उट्ठो
जहालत के ख़िलाफ़ उट्ठो
ज़लालत के ख़िलाफ़ उट्ठो
रज़ालत के ख़िलाफ़ उट्ठो
बदल डालो जमाने को यह माना हर कोई तुमको
नज़रं-अदाज़ करता है
तुम्हे जाहिल समझता है
तुम्हारा सर कुचलता है
तुम्हारी कोशिशें अक्सर
यूँही बेकार जाती हैं
तुम्हे अपनी मुशक्कत का
सिला हरगिज़ नही मिलता
तुम्हें एहल-ए-सियासत ने
हजारों साल बहकाया
हक़ीक़त से परे रखा
खिलौने दे बहलाया
यह माना तुम परेशां हो
बहुत नाचार-ओ-बेबस हो
तुम्हारा हर गिला जायज़
शिकायत भी बजा लेकिन
वो जिनको तुम जलाते हो
वो आखिर किस की फ़स्लें हैं
वो जिनको तुम मिटाते हो
वो आखिर किस की फ़स्लें हैं
वो कालेज किस के कालिज हैं
वो सड़कें किस की सड़कें हैं
वो रेलें किस की दौलत हैं
वो आखिर किस की मेहनत हैं
जलाना ग़र जरूरी है
जलाओ बुग्ज़-ओ-नफरत को
मिटाना ग़र जरूरी है
मिटाओ बरबरीयत को
जलाओ तुम हक़ारत को
मिटाओ हर शरारत को
मलामत को अज़ीयत को
और उस गन्दी सियासत को
जो ज़हनों में बढ़ाती है
कदूरत को अदावत को
दबाती है सदाक़त को
हवा देती है वहशत को
छुपाती है हकीक़त को
ह्माक़त के ख़िलाफ़ उट्ठो
जहालत के ख़िलाफ़ उट्ठो
ज़लालत के ख़िलाफ़ उट्ठो
रज़ालत के ख़िलाफ़ उट्ठो
तुम्हे हक है बदलने का
निज़ाम-ए-जिंदगी बदलो
जमाल-ए-रहबरी बदलो
मगर तर्ज़-ए-अमल बदलो
आज इंसान बनने का
वा’दा करो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरो
आज इंसान बनने का वादा करो
क़ौम के रहबरो
आज इंसान बनने का वादा करो
सख़्त नाचार है कौम
वीरान है
क़ौम की जिंदगी ग़म का तूफ़ान है
क़ौम की जिंदगी ग़म का तूफ़ान है
बच न पाओगे तुम
क़ौम के साथ ही
डूब जाओगे तुम
क़ौम ज़िन्दा रहे
तुम भी ज़िन्दा रहो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरों
क़ौम के साथ ही
डूब जाओगे तुम
क़ौम ज़िन्दा रहे
तुम भी ज़िन्दा रहो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरों
आज इंसान बनने का
वा’दा करो
सख़्त कमज़ोर है, आज बीमार है
जान होंतो पे है खून दरकार है
कौम के जिस्म से क़तरा क़तरा लहू
तुमने चाटा है जो
वक्त की मांग है
आज वापिस करो
क़ौम ज़िन्दा रहे
तुम भी ज़िन्दा रहो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरों
आज इंसान बनने का वा’दा करो
जग रहे हैं तख़य्युल में जो ख़्वाब से
उनको झुलसो न नफ़रत के तेज़ाब से
वक्त नाज़ुक सही , राह मुश्किल सही
साथ मिलकर चलो
आज भी वक्त है
कौम को थाम लो
क़ौम ज़िन्दा रहे
तुम भी ज़िन्दा रहो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरों
आज इंसान बनने का वा’दा करो
लोग आपस में मिलने को बेताब हैं
प्यार के फूल खिलने को बेताब हैं
छोड़ कर बुग्ज़-ओ-नफ़रत की पगडंडिया
साथ मिलकर चलो
कौम को फिर नई
ज़िन्दगी बख़्श दो
क़ौम ज़िन्दा रहे
तुम भी ज़िन्दा रहो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरों
सख़्त कमज़ोर है, आज बीमार है
जान होंतो पे है खून दरकार है
कौम के जिस्म से क़तरा क़तरा लहू
तुमने चाटा है जो
वक्त की मांग है
आज वापिस करो
क़ौम ज़िन्दा रहे
तुम भी ज़िन्दा रहो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरों
आज इंसान बनने का वा’दा करो
जग रहे हैं तख़य्युल में जो ख़्वाब से
उनको झुलसो न नफ़रत के तेज़ाब से
वक्त नाज़ुक सही , राह मुश्किल सही
साथ मिलकर चलो
आज भी वक्त है
कौम को थाम लो
क़ौम ज़िन्दा रहे
तुम भी ज़िन्दा रहो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरों
आज इंसान बनने का वा’दा करो
लोग आपस में मिलने को बेताब हैं
प्यार के फूल खिलने को बेताब हैं
छोड़ कर बुग्ज़-ओ-नफ़रत की पगडंडिया
साथ मिलकर चलो
कौम को फिर नई
ज़िन्दगी बख़्श दो
क़ौम ज़िन्दा रहे
तुम भी ज़िन्दा रहो
क़ौम के नाम पर
क़ौम के रहबरों
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